मुनि की रेती
मुनि की रेती Muni Ki Reti | |
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मुनि की रेती में एक धार्मिक अध्ययन करता हुआ समूह | |
निर्देशांक: 30°07′05″N 78°18′22″E / 30.118°N 78.306°Eनिर्देशांक: 30°07′05″N 78°18′22″E / 30.118°N 78.306°E | |
देश | भारत |
प्रान्त | उत्तराखण्ड |
ज़िला | टिहरी गढ़वाल ज़िला |
जनसंख्या (2011) | |
• कुल | 10,620 |
भाषा | |
• प्रचलित | हिन्दी, गढ़वाली |
समय मण्डल | भामस (यूटीसी+5:30) |
मुनि की रेती (Muni Ki Reti) भारत के उत्तराखण्ड राज्य के टिहरी गढ़वाल ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ऋषिकेश के समीप और गंगा नदी के किनारे बसा हुआ है। मुनि की रेती अपने आश्रमों के लिए जाना जाता है।[1][2]
विवरण
[संपादित करें]मुनि की रेती पवित्र चार धाम तीर्थयात्रा का एक समय में प्रवेश द्वार - आज गलतीवश ऋषिकेश का एक भाग समझा जाता है। लेकिन पवित्र गंगा के किनारे तथा हिमालय की तलहटी में अवस्थित इस छोटे से शहर की एक खास पहचान है। मुनि की रेती भारत के योग, आध्यात्म तथा दर्शन को जानने के उत्सुक लोगों का केन्द्र है, यहां कई आश्रम हैं जहां स्थानीय आबादी के 80 प्रतिशत लोगों को रोजगार मिलता है और यह जानकर आश्चर्य नहीं होगा कि यह विश्व का योग केन्द्र है। अनुभवों के खुशनुमा माहौल में प्राचीन मंदिरों, पवित्र पौराणिक घटना के कारण जाने वाली स्थानों, तथा एक सचमुच आध्यात्मिक स्वातंत्र्य का एक ठोस वास्तविक अहसास - और वो भी आरामदायक आधुनिक होटलों, रेस्टोरेन्ट तथा भीड़भाड़ वाले बाजारों में - उपलब्ध है। यहां इजराइली तथा इटालियन व्यंजनों के साथ शुद्ध शाकाहारी भोजन मिलता है, भजन-कीर्तन एंव आरती के साथ टेकनो संगीत, एक ओर पर्यटक गंगा में राफ्टिंग करते हैं और दुसरी और भक्त इसमें स्नान करते हैं; इनमें से जो भी आप ढुंढ रहे हैं, मुनि की रेती में ही आपको मिल जायेगा।
मुनि की रेती में इतिहास, पौराणिक परम्परा तथा आधुनिकता का एक जादुई मिश्रण है। जबकि यहां के लोग तथा सभ्यता रामायण तथा इससे भी पहले के युग से जुड़े हैं, यह शहर वर्तमान तथा भविष्य का एक बड़ा हिस्सा है। गंगा नदी के किनारे स्थित इस शहर का पर्यावरण प्रेरणा तथा शांत दोनों प्रदान करता है। मुनि की रेती के स्थानीय आकर्षणों में अनेकानेक प्राचीन मंदिर, आश्रम, परंपरागत स्थल शामिल हैं तथा भारत के वास्तविक रूप का आनंद उठाने का तीव्र मिश्रण है। शहर के आस-पास सैर-सपाटा आपको प्रसन्नता तथा शांति दोनो प्रदान करेगा।
इतिहास
[संपादित करें]उत्तराखंड के इतिहास में मुनि की रेती की एक खास भूमिका है। यही वह स्थान है जहां से परम्परागत रूप से चार धाम यात्रा शुरु होती थी। यह सदियों से गढ़वाल हिमालय की ऊंची चढ़ाईयों तथा चार धामों का प्रवेश द्वार था। जब तीर्थ यात्रियों का दल मुनि की रेती से चलकर अगले ठहराव गरुड़ चट्टी (परम्परागत रूप से तीर्थ यात्रियों के ठहरने के स्थान को चट्टी कहा जाता था) पर पहुंचाते थे तभी यात्रा से वापस आने वाले लोगों को मुनि की रेती वापस आने की अनुमति दी जाती थी। बाद में सड़कों एवं पूलों के निर्माण के कारण मुनि की रेती से ध्यान हट गया।
पौराणिक संदर्भ
[संपादित करें]मुनि की रेती तथा आस-पास के क्षेत्र रामायण के नायक भगवान राम तथा उनके भाइयों के पौराणिक कथाओं से भरे हैं। वास्तव में, कई मंदिरों तथा ऐतिहासिक स्थलों का नाम राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के नाम पर रखा गया है। यहां तक कि इस शहर का नाम भी इन्हीं पौराणिक कथाओं से जुड़ा है।
ऐसा कहा जाता है कि भगवान राम ने लंका में रावण को पराजित कर अयोध्या में कई वर्षो तक शासन किया और बाद में अपना राज्य अपने उत्तराधिकारियों को सौंप कर तपस्या के लिए उत्तराखंड की यात्रा की। प्राचीन शत्रुघ्न मंदिर के प्रमुख पुजारी गोपाल दत्त आचार्य के अनुसार जब भगवान राम इस क्षेत्र में आये तो उनके साथ उनके भाई तथा गुरु वशिष्ठ भी थे। गुरु वशिष्ठ के आदर भाव के लिए कई ऋषि-मुनि उनके पीछे चल पडे, चूंकि इस क्षेत्र की बालु (रेती) ने उनका स्वागत किया, तभी से यह मुनि की रेती कहलाने लगा। शालीग्राम वैष्णव ने उत्तराखंड रहस्य के 13वें पृष्ट पर वर्णन किया है कि रैभ्य मुनि ने मौन रहकर यहां गंगा के किनारे तपस्या की। उनके मौन तपस्या के कारण इसका नाम मौन की रेती तथा बाद में समय के साथ-साथ यह धीरे-धीरे मुनि की रेती कहलाने लगा। आचार्य के अनुसार, इस नगर का वर्णन स्कन्द पुराण के केदार खण्ड में भी मिलता है।
सभ्यता
[संपादित करें]नौंवी सदी से ही मुनि की रेती वेदान्त ज्ञान का एक केन्द्र हैं। सदियों से भारत भर से भक्तगण साधना या चार धाम की यात्रा शुरु करने के लिए यहां आते हैं। परिणाम स्वरुप यह शहर हमेशा बाहर से आने वाले लोगों से भरा रहता। हाल ही में, यह योग तथा साधना के साथ-साथ एडवेन्चर (साहसिक) खेलकुद का केन्द्र बन गया है जिससे यहां प्रतिदिन हजारों लोग आते-आते रहते हैं। इसलिए यहां की संस्कृति विश्व के अन्य स्थानों संस्कृति से मिली-जुली रहती है।
बोली जाने वाली भाषाएं
[संपादित करें]गढ़वाली, हिन्दी, पंजाबी एवं अंग्रेजी।
संगीत एवं नृत्य
[संपादित करें]स्थानीय निगम सदस्य श्रीमती शकुन्तला देवी के अनुसार यहां पारम्परिक गढ़वाली गीत या गाना गाकर अपने प्रियजनों को अपनी बात कहते थे। आज तो अब फोन है, इससे पहले पत्र थे लेकिन उससे पहले लोग गीतों से अपनी बात बताते थे। अपने प्रियजनों या परिवार से बिछुड़ने पर गीत का विषय विरह होता था तो उदाहरण के तौर पर गीतकार अपना दुःख चकोरी एक पक्षी – को सुनाते थे और उस पक्षी को कहते थे कि वे जाकर उनके प्रियजन को जाकर बताये कि वे उन्हें कितना प्यार करती हैं।
गाने के साथ ढ़ोल, दमाऊ, मुसक बाजा, नगाड़ा तथा बांसुरी बजाये जाते थे। ढ़ोल का एक अलग भी उपयोग था। कठिन पहाड़ी तराईयों में ढ़ोल बजाकर अपनी संवाद पहुंचाते थे। उदाहरण के तौर पर शादी के उत्सव में ढ़ोल बजाकर अगले गाँव यह बताया जाता था कि बारात निकल चुकी है और वह कब पहुंचेगी। चौफाला नृत्य, जिसमें पुरुष एवं महिलाएं बाहों में बाहें डालकर समुह में संगीत के धुन पर धीरे-धीरे नृत्य करते हैं, यहां का पारम्परिक नृत्य था।
स्थापत्य
[संपादित करें]विनोद द्विवेदी के अनुसार, प्राचीन शत्रुघ्न मंदिर नौंवी सदी के स्थापत्य कला के नमुने का एक बेहतरीन उदाहरण हैं जैसे कि मेहराब (जिसमें लकड़ी तथा सीमेन्ट पर कारीगारी की गई है। तथा लकड़ी के खंभों को कमल के फुल का आकार दिया गया है। उनके अनुसार, इस प्राचीन भवन के निर्माण में वास्तु शास्त्र के सिद्वातों को अपनाया गया है। श्री द्विवेदी इस बात की ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि टिहरी के राजा द्वारा बनवाया गया दीवान लॉज, भारत-ग्रीस के मिले-जुले तरीके से बना है जो कि नरेन्द्र नगर के राजमहल के समान है। दूर्भाग्यवश, अब दीवान लॉज भी नहीं रहा। आज का स्थापत्य बाकी के उत्तर भारत से उतना अलग नहीं है और मुनि की रेती में भवन के निर्माण नदी के पत्थरों का प्रयोग किया जाता है।
परंपरागत शैली
[संपादित करें]मुनि की रेती के स्थानीय लोग पास के गांव जैसे तपोवन से आए। ये पुराने आश्रमों के पास चाय की दुकानें चलाते थे या फिर वे अपने मवेशियों को चराने के लिए आते थे। जैसा कि समुचे गढ़वाल में पाया जाता है, मुनि के रेती में भी भारत के अन्य भागों जैसे राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश से लोग आकर बसे। यह पुराने समय में तिमुर लेन के जमाने से ब्रिटिश शासन काल तक अपने बचाव के लिए आते रहे। ये लोग लगभग 1200 वर्ष पहले आकर स्थानीय गढ़वालीयों के साथ बस गए। कईयों के उपनाम जैसे पवार (मुख्य रूप से महाराष्ट्र के लोगों का नाम), द्विवेदी (बनारस), चौहान तथा रावत (राजस्थान) या बहुगुणा (बंगाल) हैं, जिससे उनके काफी समय से बसे होने तथा मुल रूप से उन स्थानों के निवासी होने की पुष्टि होती है।
यहां के लोगों का पारम्परिक पेशा पशुपालन तथा खेती था लेकिन तब भी खेती आसपास के गांवो में होती थी, जैसे कि आज भी। धान, चावल, मकई, गेहूं, भृंगोरा, चावल, आलु एवं उड़द आदि की परम्परागत खेती होती थी जो आज भी उगाये जाते हैं। वास्तव में, बासमती चावल की खेती तपोवन में, जो यहां से दो किलोमीटर दूर है, इस क्षेत्र में प्रसिद्द है और ऐसा कहा जाता है कि मुनि की रेती तक इस चावल की खुशबु आती थी। उन दिनों यह प्राचीन शत्रुघ्न मंदिर में प्रसाद की तरह चढ़ाया जाता था। लेकिन खेती व्यवसाय से अधिक यहां के अधिकांश निवासी, मुनि की रेती में साधना तथा आश्रम में शांति की खोज में आने वाले लोगों की सेवा से अपना आजीविका कमाते हैं। यह परम्परा आज भी चली आ रही है और इस बात से प्रमाणित होता है कि यहां की लगभग 80 प्रतिशत आबादी आश्रमों में काम करती है।
हिमालय के पहाड़ी लोगों में एक सामान्य बात है कि महिलाएं पारम्परिक पोशाक घाघरा तथा अंगरीस जबकि पुरुष कुर्त्ता तथा धोती एवं गढ़वाली टोपी पहनते हैं। जाड़े की ढंडक से बचने के लिए वे गर्म कम्बल या लम्बा शॉल ओढ़ते हैं। अब सामान्य रूप से उत्तरी भारतीयों की तरह महिलाएं साड़ी तथा सलवार-कमीज तथा पुरुष शर्ट तथा पेंट पहनते हैं।
पर्यावरण
[संपादित करें]मुनि की रेती की एक खास बात यह है कि यह पवित्र गंगा नदी के किनारे बसा है। हिमालय की तराईयों से तेजी से निकलती नदी का स्वच्छ जल अनगिनत भक्तगण, आध्यात्मिक गुरुओं तथा छात्रों को यहां आने के लिए प्रेरित करता है। और यही बात आज मुनि की रेती को ज्ञान का एक मुख्य केन्द्र बनाने में सहायक है।
प्राकृतिक सुंदरता
[संपादित करें]मुनि की रेती के इर्द-गिर्द हरे-भरे ऋषिमुख पर्वत तथा मनिकुट पर्वत हैं जिसके बीच यह बसा है। इस क्षेत्र के आस-पास सुंदर झरने जैसे गरुड़ चट्टी, मुनि की रेती की प्राकृतिक सुंदरता को और भी बढ़ाते है।
पेड़-पौधे
[संपादित करें]जो पेड़-पौधे, मुनि की रेती के आसपास की पहाड़ियों में भरी पड़ी है उनमें मुख्य रूप से शीशम, आम, नीम, चन्दन, अमलताश, कीर तथा कांजु जैसे वृक्ष पार जाते हैं। स्थानीय पौधों में मुख्य रूप से लन्टाना, काला बांस, बसिंगा, अम्रीता बेल तथा अरंजी शामिल है जिससे अरण्डी का तेल निकाला जाता है। इसके अलावा इस क्षेत्र में दवाई बनाने वाली एवं तथा सुगन्धित जड़ी-बुटियां पाई जाती है और मुनि की रेती का हर्बल गार्डन देखना सचमुच ज्ञान दायक अनुभव है।
पशु – पक्षी
[संपादित करें]स्थानीय पशु-पक्षियों में काकर हिरण, बघीरा, हाथी, मोर, जंगली मुर्गी, लॅगुर तथा बंदर शामिल हैं। हॉलांकि लंगुर बहुतायत देखे जा सकते हैं लेकिन अन्य जानवरों को देख पाना दुर्लभ है। मुनि की रेती में जुगनु तथा तितलियों की कई प्रजातियां पाई जाती थी लेकिन बढ़ती शहरीकरण के कारण इनकी संख्या दिनोंदिन घटती जा रही है।
स्थानीय आकर्षण
[संपादित करें]मुनि की रेती में आपको व्यस्त रखने के लिए अगर आपके पास समय तथा रुचि हो तो वहां बहुत सारी चीजें है। अगर आप साहसिक खेल-कुद में रुचि रखते हों तो मुनि की रेती में कई टूर ऑपरेटर (पर्यटक संचालक) है जो साहसिक (एडवेन्चर) पर्यटन एक बड़ा व्यवसाय बन चुका है और आप नजदीक के क्षेत्रों में नदी बेड़े (राफ्टिंग) या ट्रेकिंग ट्रिप में हिस्सा ले सकते हैं। यदि आप मस्तिष्क के रहस्यों में रुचि रखते हैं यहां कई जाने-माने आश्रम हैं जहां साधना, संस्कृत का विस्तृत ज्ञान, वेदान्त दर्शन तथा हिन्दु के ग्रंथों के ज्ञान की विवेचना की जाती है। वे जो स्वस्थ शरीर में स्वस्थ विचार की धारणा रखते हैं वह मुनि की रेती में योग के विद्वानों से योग सीख सकते हैं। अगर आप साधना में विश्वास करते हैं तो नव घाट पर बैठना तथा बहती हुई गंगा नदी तथा आसपास के सुन्दर दृश्यों को देखना, खासकर बेड़ों के सीज़न में बेड़ों का जल में चलाना, बेहद मनमोहक तथा समय गुजारने का बढ़िया तरीका है। स्थानीय मंदिरों तथा गंगा आरती में शामिल होना मनोहारी है। यह प्रतिदिन सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय होती हैं।
प्राचीन आदि बद्रीनारायण शत्रुघ्न मंदिर
[संपादित करें]प्राचीन मंदिर पौराणिक एवं ऐतिहासिक रूप से मुनि की रेती के लिए एक प्रमुख स्थल है। यह दो मंजिला पार्किंग के नजदीक नव घाट के पास स्थित है। यही वह स्थान है जहां से प्राचीनकाल में कठिन पैदल चार धाम तीर्थ यात्रा शुरु होती थी।
प्राचीन मान्यताओं के अनुसार, जब भगवान राम एवं उनके भाई लंका में रावण के साथ युद्ध में हुई कई मृत्यु के पश्चाताप के लिए उत्तराखंड आए तो भरत ने ऋषिकेश में, लक्ष्मण ने लक्ष्मण झुला के पास, शत्रुघ्न ने मुनि की रेती में तथा भगवान राम ने देव प्रयाग में तपस्या की। यह माना जाता है कि मंदिर के स्थल पर ही शत्रुघ्न ने तपस्या की।
श्री कैलाश आश्रम
[संपादित करें]ब्रहमविदंयापीठ श्री कैलाश आश्रम की स्थापना वर्ष 1880 में श्रीमत्स्यास्वामी धनराज गिरीजी महाराज ने की। आज भी वे आदरपूर्वक आदि महाराज जी के नाम से पुकारे जाते हैं। आम विश्वास है कि उन्हें स्वप्न में भगवान शिव ने आश्रम में एक शिवलिंग की स्थापना का आदेश दिया था। इसके अतिरिक्त टिहरी के राजा के अनुरोध पर उन्होंने ग्रंथों को सुरक्षित रखने के लिए एक भवन खंड का निर्माण महामंडलेश्वर श्रीमत्स्यास्वामी विदयानन्द गिरीजी महाराज का आवास है। यही शिवलिंग आज भी श्री अभिनव चंद्रेश्वर भगवान (शिव) का रूप धारण करता है।
श्री शिवानंद आश्रम
[संपादित करें]जाने माने शिवानंद आश्रम की स्थापना वर्ष 1932 में स्वामी शिवानंद द्वारा की गई। एक स्थानीय इतिहासकार श्री बदोला के अनुसार मुनि की रेती स्वामी शिवानंद की तपोभूमि थी, जो एक मेडिकल डॉक्टर थे एवं मन की आन्तरिक शांति के लिए इस क्षेत्र में आए। वर्ष 1972 में जब श्री शिवानंद आश्रम में नारायण कुटीर के अग्रभाग की खुदाई हुई तो पुरातात्विक महत्व की चीजें पाई गई जिसने इस आश्रम को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति मिली।
ओंकारानंद आश्रम हिमालय
[संपादित करें]यह आश्रम मुख्य शहर से थोड़ा ऊपर पहाड़ी क्षेत्र में ऋषिकेश तथा गंगा के समीप मुनि की रेती में अवस्थित है। वर्ष 1967 में स्थापित इस आश्रम में विश्व के लोग जिसमें कुछ पश्चिमी यूरोप के तथा अधिकांशतः भारतीय लोग रहते हैं। उच्च शिक्षित तथा विभिन्न शैक्षणिक तथा इंजिनियरिंग विषयों में विशिष्टता प्राप्त ये आदी शंकराचार्य सरस्वती संप्रदाय के संन्यासी/मुनि हैं जो श्रृंगेरी के श्री शारदापीठ से जुड़े हैं। यह आश्रम संन्यासियों के एक समूह द्वारा संचालित किया जाता है तथा इस आश्रम के प्रेसीडंट/अध्यक्ष स्वीट्जरलैंड में जन्मे स्वामी विश्वेश्वरानंद हैं जो भारत में होने वाले कार्यकलापों जिनमें साधुओं के आश्रम/मंदिरों, विद्यालयों तथा शैक्षणिक संस्थानों, गांवों के उत्थान एवं काम करने वाले आवासीय स्वामी, शिक्षकों तथा प्रोफेसरों के भवन की देखभाल, में शामिल हैं।
इस भवन में कांचीपूरम के जाने माने स्थापति श्री एस. रविचन्द्रन द्वारा दक्षिण भारतीय कलाकारों तथा राजमिस्त्रियों की सहायता एवं श्रम द्वारा दक्षिण भारतीय रीतियों एवं वास्तुशास्त्र के अनुसार बने ओंकारानंद कामाक्षी देवी मंदिर Click Here to Stream Video दर्शनीय है जो विशिष्ट एवं योजनाबद्ध ढ़ंग से डिजाईन की गई है।
राम झुला
[संपादित करें]222 फीट लंबे राम झुला का शुभारंभ अप्रेल 1986 में किया गया जो मुनि की रेती के एक छोर को चिन्हित करता है। कार्यालयी तौर पर इसका नाम शिवानंद झुला है लेकिन रिक्शा तथा तांगा चालकों ने इसे राम झुला कहना शुरू कर दिया, चूंकि यह लक्ष्मण झुला की तुलना में बड़ा है इसलिए उनके बड़े भाई का नाम राम के आधार पर यह राम झुला पुकारा जाने लगा।
चोटीवाला रेस्टोरेन्ट
[संपादित करें]ऋषिकेश में स्वर्ग आश्रम के नजदीक साथ-साथ दो चोटीवाला रेस्टोरेन्ट हैं। पहले यह दो पंजाबी भाईयों का एक रेस्टोरेन्ट था। बाद में दोनों ने उस रेस्टोरेन्ट को विभाजित कर दो अलग रेस्टोरेन्ट बना लिए। दोनों बेहतरीन शाकाहारी भोजन खासकर दाल, मसुर दाल, खोया पनीर, थाली तथा चपाती परोस्ते हैं। भोजन बहुत सस्ता है जो १०० रूपये प्रति प्लेट से अधिक नहीं है। जो खास बात उन्हे प्रसिद्ध बनाती है, वह उनके लोगों द्वारा उचित मेक अप एवं पोशाक पहनकर देवताओं के रूप में सुसज्जित होना है। इस रेस्टोरेन्ट का इतिहास ५० वर्शो से अधिक का हैं।
औषधि बगीचा
[संपादित करें]अगर आप ऋषिकेश-गंगोत्री रोड पर ओंकारानंद आश्रम तथा भद्रकाली मंदिर की और चले तो आपको डॉ सुशीला तिवारी औषधि बगीचा मिलेगा जहां वनौषधि तथा सुगंधित जड़ी-बुटियों की भरमार है। इसकी स्थापना वर्ष 2003 में उत्तराखंड के भूतपूर्व मुख्यमंत्री डॉ एन डी तिवारी के आदेशानुसार हुआ तथा यह 4.23 हेक्टेअर क्षेत्र में फैला हुआ है। यह सरकार के वन विभाग द्वारा संचालित है।
स्वामी दयानंद आश्रम
[संपादित करें]स्वामी दयानंद आश्रम का बुनियादी कार्य स्वामी दयानंद स्वरस्वती (19वीं सदी के महान सुधारक के नाम पर रखा गया जिन्होंने आर्य समाज की स्थापना की) द्वारा वर्ष 1963 में शुरु किया गया तथा वर्ष 1982 में इसका निर्माण कार्य पूरा हुआ। मुनी की रेती में पुरानी झाड़ी या शीशम झाड़ी में अवस्थित यह आश्रम वैदिक शिक्षण के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के धर्मार्थ कार्यकलापों का केन्द्र रहा है।
बाबा मस्तराम गुफा
[संपादित करें]बाबा मस्तराम मुनी की रेती के सुविख्यात और जाने-माने नाम है। इन्होंने अपना जीवन निस्वार्थ सेवा में बिता दिया। वर्ष 1987 में इनका निधन हो गया। गंगा तट पर स्थित जिस गुफा में वे आजीवन रहे, वह अब शहर का ऐतिहासिक स्थान है। उनके शिष्य और दर्शनार्थी इसे देखने आते हैं। यह कहा जाता है कि बाबा मस्तराम, जो गुफा में साधना करने में अपना समय बिताते थे, अपने मिलने वालों को समाज सेवा का पाठ पढ़ाया करते थे। वह गुफा से तभी बाहर निकलते थे जब नदी का पानी ऊपर चढ़ता था। तब, वे आश्रम में रहा करते थे।
बाबा ने सन् 1963 में आश्रम की स्थापना की थी। यह आश्रम अभी भी सत्कार्यों जैसे निर्धनों और जरुरतमंदों को खिलाना, गायों के लिए चारा देने में लगा हुआ है। यह अन्य प्रकार की सामाजिक सेवा में भी लगा हुआ है।
निकटवर्ती आकर्षण
[संपादित करें]मुनि की रेती, आस-पास की प्राकृतिक की प्राकृतिक सुंदरता तथा अपनी धार्मिक तथा एतिहासिक विरासत के कारण अदभूत है। फल-स्वरुप यात्रियों के लिए इस शहर के नजदीक में कई घुमने योग्य स्थान हैं। प्राकृतिक सुंदरता के लिए आप गरुड़ चट्टी जलप्रपात जा सकते हैं तथा छोटे बनाबटी जलप्रपातों के ट्रेक के प्रारंभ में ही अवस्थित गरुड़ को समर्पित मंदिर भी जा सकते हैं। या आप इससे कठिन ट्रेक, नीरागड्डू जलप्रपात देखने जा सकते हैं जहां आपके कठिन मेहनत का फल वहां की असीम सुंदरता में देखने को मिलेगी। अगर धार्मिक स्थल को देखना है तो यहां से लगभग 28 किलोमीटर दूर एक बेहतर स्थान कुंजादेवी मंदिर है, जो एक पूजनीय सिद्वपीठ है। अन्य पूजनीय स्थल में भगवान शिव को समर्पित नीलकंठ महादेव मंदिर है। घूमने योग्य अन्य स्थान जो नजदीक में है, उनमें लक्ष्मण झूला, लक्ष्मण मंदिर तथा ऋषिकेश शामिल है।
लक्ष्मण झुला
[संपादित करें]प्राचीन मत के अनुसार लंका विजय के बाद जब भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण के साथ हिमालय की तीर्थ यात्रा पर निकले तो लक्ष्मण ने प्रार्थना स्थान के रूप में इसी जगह को चुना तथा विशाल गंगा को पार करने के लिए रस्सी का उपयोग किया। उनके सम्मान स्वरुप रस्सी के एक झुला का निर्माण किया गया जो वर्ष 1809 तक मौजुद था। कलकत्ता के निवासी सेठ सुरजमल के दान शशि से एक अन्य रस्सी के पूल का निर्माण कराया गया। जो कि 1924 की बाद में बह गया वर्ष 1930 में एक अन्य लोहे के तारों से बने 140 मीटर लम्बे पुल ने उसकी जगह ले ली, इसे ही आज लक्ष्मण झुला कहते हैं। जब आप झुला पार कर रहे हों, आप झुला के नीचे बहती गंगा नदी के सुंदर दृश्य का आनंद लें लेकिन आप विचारों में न खो जाएं बल्कि अपने सामानों का भी ध्यान रखें क्योंकि इस क्षेत्र में फैले बन्दर आपको परेशान कर सकते हैं।
लक्ष्मण मंदिर
[संपादित करें]प्राचीन लक्ष्मण मंदिर, लक्ष्मण झुला के करीब स्थित है। सालों भर यात्री इस मंदिर में दर्शन के लिए आते हैं। यह ऋषिकेश से चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर में लक्ष्मण की पौराणिक प्रतिमा है जो लोगों को धीरज देती है। लोकमत के अनुसार इस मंदिर का पुनरुद्वार वर्ष 1885 में हुआ। इसके पौराणिक महत्व के कारण लक्ष्मण झूला आने वाले तीर्थ यात्री, यहां भी आते हैं।
स्वर्ग आश्रम
[संपादित करें]नदी के पार बांयी तट पर स्थित यह 13 मंजिला भव्य भवन नव घाट से मोटर बोट द्वारा पहुंचा जा सकता है। यहां के शाम की आरती का आयोजन, शामिल होने लायक है।
ऋषिकेश
[संपादित करें]चंद्रभाग तथा गंगा नदी के मिलन स्थल पर ऋषिकेश स्थित है, जो संतो के स्थान के रूप में जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि रमिया ऋषि के तपस्या का उत्तर देने के लिए भगवान हृषिकेश के वेश में उपस्थित हुए और इसी घटना से इस स्थान का नाम मिला। इस बिन्दु से गंगा अपनी पहाड़ी स्थानों को छोड़कर उत्तरी भारत के विशाल मैदानों में पहुंचती है।
नीलकंठ महादेव
[संपादित करें]नीलकंठ ऋषिकेश में स्वर्ग आश्रम के ऊपर एक पहाड़ी मे 1,675 मीटर की ऊंचाई पर अवस्थित है। मुनी की रेती से यह सड़क मार्ग से 50 कि॰मी॰ और नाव द्वारा गंगा पार करने पर 25 कि॰मी॰ की दूरी पर अवस्थित है।
नीलकंठ महादेव क्षेत्र के सबसे पूज्य मंदिरों में से एक है। यह कहा जाता है कि नीलकंठ महादेव वह स्थान है जहां भगवान शिव ने समुद्र मंथन के दौरान विष पीया था। उनकी पत्नी, पार्वती ने उनका गला दबाया जिससे कि विष उनके पेट तक नहीं पहुंचे। इस तरह, विष उनके गले में बना रहा। इस कारण उनका गला नीला पड़ गया। नीलकंठ नाम इसी पर आधारित है।
अत्यन्त प्रभावशाली यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इसकी नक्काशी देखते ही बनती है। अत्यन्त मनोहारी मंदिर शिखर के तल पर समुद्र मंथन का दृश्य चित्रित किया गया है ; और गर्भ गृह के प्रवेश-द्वार पर एक विशाल पेंटिंग में भगवान शिव को विष पीते भी दिखलाया गया है। गर्भ गृह में फोटोग्राफी करने पर सख्त प्रतिबंध है। मंदिर के निकट एक लघु जल प्रपात भी है। नीलकंठ महादेव के रास्ते में गढ़वाल मंडल विकास निगम एक छोटे से सुविधा-केन्द्र का परिचालन भी करता है जहां आप अपने आप को तरोताजा कर सकते हैं। सामने की पहाड़ी पर शिव की पत्नी, पार्वती को समर्पित मंदिर है।
गरूड़ चट्टी जलप्रपात
[संपादित करें]नीलकंठ महादेव के रास्ते में मुनी की रेती से 5 किलोमीटरों की दूरी पर अवस्थित गरूड़ चट्टी जलप्रपात एक छोटा सा - लगभग 20 फीट ऊंचाई का - लेकिन अत्यन्त खूबसूरत जलप्रपात है। आपको जलप्रपात तक पहुंचने के लिए मुनी की रेती से लगभग 750 मीटरों की चढ़ाई चढ़नी पड़ेगी।
गरूड़ चट्टी में गरूड़ को समर्पित एक मंदिर भी है। यहां हनुमान और भगवान शिव की प्रतिमाएं भी हैं। प्रवेश-स्थान में स्थित एक पट्टिका में दर्शकों को चेतावनी दी गई है कि मंदिर का दर्शन तभी सफल होगा जब वह (दर्शक) मंदिर में प्रवेश करने से पहले शराब, मांसाहारी भोजन और अंडों का सेवन बंद करने का प्रण लें। इस मंदिर में प्रतिदिन प्रातः 6 बजे और सायं 6 बजे आरती का आयोजन किया जाता है। गंगा के किनारे खडंजे से निर्मित घाट भी है जहां भक्तजन मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व स्नान कर सकते हैं।
अपुष्ट खबरों के अनुसार, टाइटैनिक की शीर्ष नायिका, केट विन्सलेट ने मई, 1998 में ऋषिकेश का भ्रमण किया था और इस जलप्रपात में स्नान किया था। इसके परिणामस्वरूप कई लोग इसे केट विन्सलेट जलप्रपात कह कर संबोधित करते हैं!
नीड़गड्डु जलप्रपात
[संपादित करें]नीड़गड्डु जलप्रपात पहुंचना तो मुश्किल है लेकिन, अगर आपके पास शारीरिक दमखम है तो यहां पहुंचा जा सकता है। यह मुनी की रेती से बद्रीनाथ के रास्ते में 15 किलोमीटरों की दूरी पर अवस्थित है। आखिर के 3 किलोमीटर चुनौती पेश करते हैं क्योंकि आपको आगे के ऊंचे-नीचे भू-भाग में चढ़ाई चढ़नी पड़ेगी।
यह जलप्रपात पहाड़ियों की मनोरम हरियाली के बीच अवस्थित है। इसमें 60 से 70 मीटरों की ऊंचाई से पानी एक छोटे से जलाशय में गिरता है। पानी का कोहरेदार छिड़काव और प्रपात की जोरदार आवाज से इस स्थान की छटा और निराली हो जाती है। पर्यटक इस जलाशय में स्नान करते हैं तथा तैरते हैं तथा इसके किनारे पिकनिक मनाते हैं। उत्तराखंड सरकार निकट भविष्य में इस स्थान को पर्यटन स्थल के तौर पर विकसित करने की योजना बना रही है।
कुंजापुरी सिद्धपीठ
[संपादित करें]मुनी के रेती से 28 कि.मी., नरेन्द्र नगर से 13 कि.मी. ऊंचाई : समुद्र से 1,665 मीटर देवी कुंजापुरी मां को समर्पित मां कुंजापुरी देवी मंदिर से दर्शनार्थी गढ़वाल पहाड़ियों के रमणीय दृश्य को देख सकते हैं। आप कई महत्वपूर्ण चोटियों जैसे उत्तर दिशा में स्थित बंदरपंच (6,320 मी.), स्वर्गारोहिणी (6,248 मी.), गंगोत्री (6,672 मी.) और चौखम्भा (7,138 मी.) को देख सकते हैं। दक्षिण दिशा में यहां से ऋषिकेश, हरिद्वार और इन घाटी जैसे क्षेत्रों को देखा जा सकता है। यह मंदिर उत्तराखंड में अवस्थित 51 सिद्ध पीठों में से एक है। मंदिर का सरल श्वेत प्रवेश द्वार में एक बोर्ड प्रदर्शित किया गया है जिसमें यह लिखा गया है कि यह मंदिर को 197वीं फील्ड रेजीमेंट (कारगिल) द्वारा भेंट दी गई है। मंदिर तक तीन सौ आठ कंक्रीट सीढ़ियां पहुंचती हैं। वास्तविक प्रवेश की पहरेदारी शेर, जो देवी की सवारी हैं और हाथी के मस्तकों द्वारा की जा रही है। कुंजापुरी मंदिर अपने आप में ही श्वेतमय है। हालांकि, इसके कुछ हिस्से चमकीले रंगों में रंगे गए हैं। इस मंदिर का 01 अक्टूबर 1979 से 25 फ़रवरी 1980 तक नवीकरण किया गया था मंदिर के गर्भ गृह में कोई प्रतिमा नहीं है - वहां गड्ढा है - कहा जाता है कि यह वही स्थान है जहां कुंजा गिरा था। यहीं पर पूजा की जाती है, जबकि देवी की एक छोटी सी प्रतिमा एक कोने में रखी है।
उत्सव
[संपादित करें]जगन्नाथ रथ यात्रा
[संपादित करें]प्रतिवर्ष अक्टुबर में मुनि की रेती में उड़ीसा के पुरी की प्रसिद्व जगन्नाथ रथ यात्रा का लघुरुप मनाया जाता है। यह यात्रा मधुबन आश्रम से शुरु होती है, जहां भगवान को रथ पर बिठाया जाता है और यह स्थानीय निवासियों तथा आगन्तुक भक्तों के भीड़ के साथ धीरे-धीरे मुनि की रेती होती हुई ऋषिकेश की ओर बढ़ती है। सम्पूर्ण यात्रा में पूजा-पाठ चलता रहता है एवं रथ को रस्सियों से भक्तगण द्वारा खींचा जाता है। लोग इस उत्सव में रथ पीछे-पीछे त्योहार के वस्त्र पहनकर नाचते-गाते हुऐ चलते हैं।
विकास मेला
[संपादित करें]सुभाष चन्द्र बोस का जन्म दिन प्रतिवर्ष 23 जनवरी को मेला के रूप में मनाया जाता है। यह उत्सव जो अराजनीतिक युवा वर्ग द्वारा आयोजित किया जाता है में लोकनृत्य तथा संगीत का कार्यक्रम भी होता है। साथ ही व्यापार वृद्वि के लिए कई स्टॉल भी लगाए जाते हैं।
गंगा महोत्सव
[संपादित करें]अक्टुबर 2006 में पहली बार मुनि की रेती में नव घाट पर गंगा महोत्सव शुरु करने का विचार किया जा रहा है जिसमें गंगा नदी के जल में तैरता हुआ स्टेज तैयार किया जायेगा। तीन दिनों तक चलने वाले आयोजन में लोक नृत्य, संगीत तथा भजन संध्या द्वारा गंगा को सम्मानित किया जायेगा।
आवागमन
[संपादित करें]- हवाई द्वाराः
निकटतक हवाई अड्डा देहरादून स्थित जॉली ग्रान्ट है जो 17 किलोमीटर दूरी पर है।
- ट्रेन द्वाराः
आप हरिद्वार (जो वहां से 27 किलोमीटर दूर है) जाने वाली कई ट्रेनों से किसी एक ट्रेन में जा सकते हैं, ऋषिकेश (3 किलोमीटर दूर) या देरहादुन (51 किलोमीटर दूर) से भी जा सकते हैं।
- सड़क मार्ग द्वाराः
राष्ट्रीय राजमार्ग 7 यहाँ से गुज़रता है और इसे सड़क द्वारा कई स्थानों से जोड़ता है। आप बस या एक टैक्सी से यात्रा कर सकते हैं या किसी नजदीकी रेलवे स्टेंशन से टेम्पो या ऑटो से भी पहुंच सकते हैं।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ "Uttarakhand: Land and People," Sharad Singh Negi, MD Publications, 1995
- ↑ "Development of Uttarakhand: Issues and Perspectives," GS Mehta, APH Publishing, 1999, ISBN 9788176480994