घेरण्ड संहिता
घेरण्ड-संहिता हठयोग के तीन प्रमुख ग्रन्थों में से एक है। अन्य दो ग्रन्थ हैं - हठयोग प्रदीपिका तथा शिवसंहिता। इसकी रचना १७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में की गयी थी। हठयोग के तीनों ग्रन्थों में यह सर्वाधिक विशाल एवं परिपूर्ण है। इसमें सप्तांग योग की व्यावहारिक शिक्षा दी गयी है। घेरण्ड-संहिता सबसे प्राचीन और प्रथम ग्रन्थ है , जिसमे योग की आसन , मुद्रा , प्राणायाम, नेति , धौति आदि क्रियाओं का विषद् वर्णन है। इस ग्रन्थ के उपदेशक घेरण्ड मुनि हैं जिन्होंने अपने शिष्य राजा चंडकपालि को योग विषयक प्रश्न पूछने पर उपदेश दिया था।
परिचय
[संपादित करें]घेरण्ड संहिता के काल के विषय में भी बहुत सारे विद्वानों के अलग-अलग मत हैं । उन सभी मतों के बीच इसका काल १७वीं शताब्दी के आसपास का माना जाता है ।
घेरण्ड संहिता के योग का उद्देश्य :- महर्षि घेरण्ड अपनी योग विद्या का उपदेश तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति के लिए करते हैं । इसमें योग को सबसे बड़ा बल बताया है । साधक इस योगबल से ही उस तत्त्वज्ञान की प्राप्ति करता है ।
घेरण्ड संहिता में योग का स्वरूप :- घेरण्ड संहिता में योग को सबसे बड़ा बल मानते हुए तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए इसका उपदेश दिया गया है । इस ग्रन्थ में घेरण्ड मुनि द्वारा शरीर को घट की संज्ञा दी गई है, इसलिए इसे "घटस्थ योग" के नाम से भी जाना जाता है । घेरण्ड संहिता को सप्तांग योग भी कहा जाता है क्योंकि इसके सात (7) अध्यायों में योग के सात अंगों की चर्चा की गई है । जो इस प्रकार हैं –
1. षट्कर्म
2. आसन
3. मुद्रा
4. प्रत्याहार
5. प्राणायाम
6. ध्यान
7. समाधि ।
नीचे सभी अध्यायों का संक्षिप्त वर्णन है-
प्रथम अध्याय
[संपादित करें]घेरण्ड संहिता में सबसे पहले महर्षि घेरण्ड व चण्डकपालि राजा के बीच में संवाद ( बातचीत ) को दिखाया गया है । राजा चण्डकपालि महर्षि घेरण्ड को प्रणाम करते हुए तत्त्वज्ञान को प्राप्त करवाने वाली योग विद्या को जानने की इच्छा व्यक्त करते हैं । तब महर्षि घेरण्ड ने उनकी विनती को स्वीकार करके उनको योग विद्या का ज्ञान देना प्रारम्भ किया ।
- घटस्थ योग
मनुष्य के शरीर को कच्चा घट अर्थात घड़ा मानते हुए उस कच्चे घड़े रूपी शरीर को योग रूपी अग्नि द्वारा परिपक्व ( मजबूत ) बनाने के लिए योग के सात साधनों (सप्तसाधन) का उपदेश दिया है ।
- शोधनं दृढ़ता चैव स्थैर्यं धैर्यं च लाघवम् ।
- प्रत्यक्षं च निर्लिप्तं च घटस्थं सप्तसाधनम्।
(अर्थात् शरीर की शुद्धि के लिए सात साधन है- शोधन, दृढ़ता, स्थैर्य, धैर्य, लाघव, प्रत्यक्ष, और निर्लिप्तता । )
- सप्तांग योग का लाभ
योग के सप्त साधनों का वर्णन करते हुए उनके लाभों की चर्चा भी इसी अध्याय में की गई है । योग के सभी अंगों के लाभ इस प्रकार हैं –
- षट्कर्मणा शोधनं च आसनेन भवेद् दृढम् ।
- मुद्रया स्थिरता चैव प्रत्याहारेण धीरता ॥
- प्राणायामाल्लाघवं च ध्यानात्प्रत्यक्षमात्मनि ।
- समाधिना च निर्लिप्तं मुक्तिरेव न संशयः ॥
( अर्थात् शरीर के शोधन के लिए षट्कर्म, दृढ़ता के लिये आसनों का अभ्यास, स्थैर्य के लिये मुद्रायें, धैर्य के लिये प्रत्याहार, लाघव के लिये प्राणायाम, ध्येय के प्रत्यक्ष दर्शनार्थ ध्यान और निर्लिप्तता (आसक्तिहीनता) के लिये समाधि आवश्यक है। इस क्रम से अभ्यास करने पर अवश्य ही मुक्ति होती है, इसमें संशय नहीं है।)
षट्कर्म = शोधन
आसन = दृढ़ता
मुद्रा = स्थिरता
प्रत्याहार = धैर्य
प्राणायाम = लघुता / हल्कापन
ध्यान = प्रत्यक्षीकरण / साक्षात्कार
समाधि = निर्लिप्तता / अनासक्त अवस्था
- षट्कर्म वर्णन
वैसे तो षट्कर्म मुख्य रूप से छः होते हैं । लेकिन आगे उनके अलग – अलग विभाग भी किये गए हैं । जिनका वर्णन इस प्रकार है –
1. धौति :- धौति के मुख्य चार भाग माने गए हैं । और आगे उनके भागों के भी विभाग किये जाने से उनकी कुल संख्या 13 हो जाती है ।
धौति के चार प्रकार :-
(1) अन्तर्धौति
(2) दन्त धौति
(3) हृद्धधौति
(4) मूलशोधन ।
(1) अन्तर्धौति के प्रकार :-
(1.1) वातसार धौति
(1.2) वारिसार धौति
(1.3) अग्निसार धौति
(1.4) बहिष्कृत धौति ।
(2) दन्तधौति के प्रकार :-
(2.1) दन्तमूल धौति
(2.2) जिह्वाशोधन धौति
(2.3 & 2.4) कर्णरन्ध्र धौति (दोनों कानों से)
(2.5) कपालरन्ध्र धौति ।
(3) हृद्धधौति के प्रकार :-
(3.1) दण्ड धौति
(3.2) वमन धौति
(3.3) वस्त्र धौति ।
(4) मूलशोधन :- मूलशोधन धौति के अन्य कोई भाग नहीं किए गए हैं ।
2. बस्ति :- बस्ति के दो प्रकार होते हैं –
(1) जल बस्ति
(2) स्थल बस्ति ।
3. नेति :- नेति क्रिया के दो भाग किये गए हैं –
(1) जलनेति
(2) सूत्रनेति ।
4. लौलिकी :- लौलिकी अर्थात नौलि क्रिया के तीन भाग माने जाते हैं –
(1) मध्य नौलि
(2) वाम नौलि
(3) दक्षिण नौलि ।
5. त्राटक :- त्राटक के अन्य विभाग नहीं किये गए हैं । वैसे इसके तीन भाग होते हैं लेकिन वह अन्य योगियों के द्वारा कहे गए हैं ।
6. कपालभाति :- कपालभाति के तीन भाग होते हैं –
(1) वातक्रम कपालभाति
(2) व्युत्क्रम कपालभाति
(3) शीतक्रम कपालभाति ।
द्वितीय अध्याय
[संपादित करें]दूसरे अध्याय में आसनों का वर्णन किया गया है । महर्षि घेरण्ड का मानना है कि संसार में जितने भी जीव-जन्तु हैं, उतने ही आसन होते हैं । भगवान शिव ने चौरासी लाख (8400000) आसन कहे हैं, उनमें से उन्होंने चौरासी (84) को ही श्रेष्ठ माना है । यहाँ पर महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि उन चौरासी श्रेष्ठ आसनों में से भी बत्तीस (32) आसन अति विशिष्ट होते हैं । अतः घेरण्ड संहिता में कुल बत्तीस आसनों का वर्णन मिलता है । जिनके नाम निम्नलिखित हैं –
1. सिद्धासन, 2. पद्मासन, 3. भद्रासन, 4. मुक्तासन, 5. वज्रासन, 6. स्वस्तिकासन, 7. सिंहासन, 8. गोमुखासन, 9. वीरासन,10. धनुरासन, 11. मृतासन / शवासन, 12. गुप्तासन, 13. मत्स्यासन, 14. मत्स्येन्द्रासन, 15. गोरक्षासन, 16. पश्चिमोत्तानासन, 17. उत्कटासन, 18. संकटासन, 19. मयूरासन, 20. कुक्कुटासन, 21. कूर्मासन, 22. उत्तानकूर्मासन, 23. मण्डुकासन, 24. उत्तान मण्डुकासन, 25. वृक्षासन, 26. गरुड़ासन, 27. वृषासन, 28. शलभासन, 29. मकरासन, 30. उष्ट्रासन, 31. भुजंगासन, 32. योगासन
महर्षि घेरण्ड ने सिंहासन को सभी व्याधियों (रोगों) को समाप्त करने वाला आसन माना है ।
तृतीय अध्याय
[संपादित करें]तीसरे अध्याय में योग की मुद्राओं का वर्णन किया गया है । मुद्राओं का अभ्यास करने से शरीर में स्थिरता आती है । घेरण्ड संहिता में कुल पच्चीस (25) मुद्राओं का उल्लेख मिलता है । इन पच्चीस मुद्राओं के नाम निम्न हैं –
1. महामुद्रा, 2. नभोमुद्रा, 3. उड्डियान बन्ध, 4. जालन्धर बन्ध, 5. मूलबन्ध, 6. महाबंध, 7. महाबेध मुद्रा, 8. खेचरी मुद्रा, 9. विपरीतकरणी मुद्रा, 10. योनि मुद्रा, 11. वज्रोली मुद्रा, 12. शक्तिचालिनी मुद्रा, 13. तड़ागी मुद्रा, 14. माण्डुकी मुद्रा, 15. शाम्भवी मुद्रा, 16. पार्थिवी धारणा, 17. आम्भसी धारणा, 18. आग्नेयी धारणा, 19. वायवीय धारणा, 20. आकाशी धारणा, 21. अश्विनी मुद्रा, 22. पाशिनी मुद्रा, 23. काकी मुद्रा, 24. मातङ्गी मुद्रा, 25. भुजङ्गिनी मुद्रा ।
चतुर्थ अध्याय
[संपादित करें]चौथे अध्याय में प्रत्याहार का वर्णन किया गया है । प्रत्याहार के पालन से हमारी इन्द्रियाँ अन्तर्मुखी होती है । साथ ही धैर्य की वृद्धि होती है । जब साधक की इन्द्रियाँ बहिर्मुखी होती हैं तो उससे साधना में विघ्न उत्पन्न होता है । इसलिए साधक को धैर्य व संयम की प्राप्ति के लिए प्रत्याहार का पालन करना चाहिए ।
पंचम अध्याय
[संपादित करें]पाँचवें अध्याय में मुख्य रूप से प्राणायाम की चर्चा की गई है । लेकिन प्राणायाम की चर्चा से पहले आहार के ऊपर विशेष बल दिया गया है । मुख्य रूप से तीन प्रकार के आहार की चर्चा की गई है । जिसमें आहार की तीन श्रेणियाँ बताई हैं –
(1) मिताहार
(2) ग्राह्य या हितकारी आहार
(3) अग्राह्य निषिद्ध आहार ।
इनमें से मिताहार को योगी के लिए श्रेष्ठ आहार माना है । ग्राह्य या हितकारी आहार में वें खाद्य पदार्थ शामिल किये गए हैं जो शीघ्र पचने वाले व मन के अनुकूल होते हैं । निषिद्ध आहार को सर्वथा त्यागने की बात कही गई है ।
नाड़ी शोधन क्रिया :-
घेरण्ड संहिता में भी प्राणायाम से पूर्व नाड़ी शोधन क्रिया के अभ्यास की बात कही गई है ।
प्राणायाम चर्चा :-
पाँचवें अध्याय का मुख्य विषय प्राणायाम ही है । यहाँ पर भी प्राणायाम को कुम्भक कहा है । इस ग्रन्थ में भी आठ कुम्भकों अर्थात प्राणायामों का वर्णन किया गया है । जो निम्न हैं –
1. सहित ( सगर्भ व निगर्भ ) 2. सूर्यभेदी, 3. उज्जायी, 4. शीतली, 5. भस्त्रिका, 6. भ्रामरी, 7. मूर्छा, 8. केवली ।
षष्ठ अध्याय
[संपादित करें]छठे अध्याय में ध्यान की चर्चा की गई है । घेरण्ड संहिता में तीन प्रकार के ध्यान का उल्लेख मिलता है –
1. स्थूल ध्यान, 2. ज्योतिर्ध्यान 3. सूक्ष्म ध्यान ।
इनमें सबसे उत्तम ध्यान सूक्ष्म ध्यान को माना गया है ।
सप्तम अध्याय
[संपादित करें]सातवें अर्थात अन्तिम अध्याय में समाधि की चर्चा की गई है । समाधि चित्त की उत्कृष्ट अर्थात उत्तम अवस्था को कहा गया है । समाधि से निर्लिप्तता आती है । जब हमारे चित्त की सभी पदार्थों के प्रति लिप्तता समाप्त हो जाती है । तब यह योग सिद्ध होता है । घेरण्ड संहिता में समाधि के छः (6) भेद कहे गए हैं –
1. ध्यानयोग समाधि, 2. नादयोग समाधि, 3. रसानन्द योग समाधि, 4. लययोग समाधि, 5. भक्तियोग समाधि, 6. राजयोग समाधि ।
इस प्रकार महर्षि घेरण्ड ने अपने सप्तांग योग का वर्णन किया है ।
आसन , मुद्रा , बंध , प्राणायामादि योग की विभिन्न क्रियाओं का जैसा वर्णन इस ग्रन्थ में है , ऐसा वर्णन अन्य कहीं उपलब्ध नहीं होता। पतंजलि मुनि को भले ही योग दर्शन के प्रवर्तक माना जाता हो परन्तु महर्षि पतंजलि कृत योगसूत्र में भी आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति , धौति, बंध आदि क्रियाओं का कहीं भी सविस्तार वर्णन नहीं आया है। आज योग के जिन आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति, धौति, बंध आदि क्रियाओं का प्रचलन योग के नाम पर हो रहा है , उसका मुख्य स्रोत यह घेरण्ड संहिता नामक प्राचीन ग्रन्थ ही है। उनके बाद गुरु गोरखनाथ जी ने शिव संहिता ग्रन्थ में तथा उनके उपरांत उसके शिष्य स्वामी स्वात्माराम जी ने हठयोग प्रदीपिका में आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति , धौति बंध आदि क्रियाओं का वर्णन किया है , परन्तु इन सब आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति , धौति बंध आदि क्रियाओं का मुख्य स्रोत यह प्राचीन ग्रन्थ घेरण्ड संहिता ही है।
इस घेरण्ड संहिता में कुल 353 श्लोक हैं, जिसमे ७ अध्याय (सप्तोपदेश) : (षट्कर्म प्रकरणं , आसन प्रकरणं, मुद्रा कथनं, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यानयोग, समाधियोग ) का विषद् वर्णन है। इस ग्रन्थ में प्राणायाम के साधना को प्रधानता दी गयी है।[1]
पातंजल योग दर्शन से घेरंड संहिता का राजयोग भिन्न है। महर्षि का मत द्वैतवादी है एवं यह घेरंड संहिता अद्वैतवादी है। जीव की सत्ता ब्रह्म सत्ता से सर्वथा भिन्न नहीं है। अहं ब्रह्मास्मि का भाव इस संहिता का मूल सिद्धांत है। इसी सिद्धांत को श्री गुरु गोरक्षनाथ जी ने अपने ग्रन्थ योगबीज एवं महार्थमंजरी नामक ग्रन्थ में स्वीकार किया है। कश्मीर के शैव दर्शन में भी यह सिद्धांत माना गया है।
इस घेरंड संहिता ग्रन्थ में सात उपदेशों द्वारा योग विषयक सभी बातों का उपदेश दिया गया है। पहले उपदेश में महर्षि घेरंड ने अपने शिष्य चंडकपाली को योग के षटकर्म का उपदेश दिया है। दूसरे में आसन और उसके भिन्न-भिन्न प्रकार का विशद वर्णन किया है। तीसरे में मुद्रा के स्वरुप, लक्षण एवं उपयोग बताया गया है। चौथे में प्रत्याहार का विषय है। पांचवे में साधना हेतु स्थान, काल, मिताहार और नाडी शुद्धि के पश्चात प्राणायाम की विधि बताई गयी है। छठे में ध्यान करने की विधि और उपदेश बताये गए हैं। सातवें में समाधि-योग और उसके प्रकार/भेद (ध्यान-योग, नाद-योग, रसानंद-योग, लय-सिद्धि-योग, भक्ति-योग, राजयोग) बताये गए हैं। इस प्रकार ३५० श्लोकों वाले इस छोटे से ग्रन्थ में योग के सभी विषयों का वर्णन आया है। इस ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली सरल, सुबोध एवं साधक के लिए अत्यंत उपयोगी है।
विवरण
[संपादित करें]योग आसन , मुद्रा , बंध , प्राणायाम , योग की विभिन्न क्रियाओं का वर्णन आदि का जैसा वर्णन इस ग्रन्थ में है , ऐसा वर्णन अन्य कही उपलब्ध नहीं होता। पतंजलि मुनि को भले ही योग दर्शन के प्रवर्तक माना जाता हो परन्तु महर्षि पतंजलि कृत योगसूत्र में भी आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति , धौति, बंध आदि क्रियाओं कहीं भी वर्णन नहीं आया है। आज योग के जिन आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति, धौति, बंध आदि क्रियाओं का प्रचलन योग के नाम पर हो रहा है , उसका मुख्य स्रोत यह घेरण्ड संहिता नामक प्राचीन ग्रन्थ ही है। उनके बाद गुरु गोरखनाथ जी ने शिव संहिता ग्रन्थ में तथा उनके उपरांत उसके शिष्य स्वामी स्वात्माराम जी ने हठयोग प्रदीपिका में आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति , धौति बंध आदि क्रियाओं का वर्णन किया है , परन्तु इन सब आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति , धौति बंध आदि क्रियाओं का मुख्य स्रोत यह प्राचीन ग्रन्थ घेरण्ड संहिता ही है।
इस घेरण्ड संहिता में कुल ३५० श्लोक हैं, जिसमे ७ अध्याय (सप्तोपदेश) : (षट्कर्म प्रकरणं , आसन प्रकरणं, मुद्रा कथनं, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यानयोग, समाधियोग ) का विशद वर्णन है। इस ग्रन्थ में प्राणायाम के साधना को प्रधानता दी गयी है।[1]
पतंजलि योग दर्शन से घेरंड संहिता का राजयोग भिन्न है। महर्षि का मत द्वैतवादी है एवं यह घेरंड संहिता अद्वैतवादी है। जीव की सत्ता ब्रह्म सत्ता से सर्वथा भिन्न नहीं है। अहं ब्रह्मास्मि का भाव इस संहिता का मूल सिद्धांत है। इसी सिद्धांत को श्री गुरु गोरक्षनाथ जी ने अपने ग्रन्थ योगबीज एवं महार्थमंजरी नामक ग्रन्थ में स्वीकार किया है। कश्मीर के शैव दर्शन में भी यह सिद्धांत माना गया है। आदि शंकराचार्य जी ने भी इसी अद्वैत मत का उपदेश दिया है।
इस घेरंड संहिता ग्रन्थ में सात उपदेशों द्वारा योग विषयक सभी बातों का उपदेश दिया गया है। पहले उपदेश में महर्षि घेरंड ने अपने शिष्य चंडकपाली को योग के षटकर्म का उपदेश दिया है। दूसरे में आसन और उसके भिन्न-भिन्न प्रकार का विशद वर्णन किया है। तीसरे में मुद्रा के स्वरुप, लक्षण एवं उपयोग बताया गया है। चौथे में प्रत्याहार का विषय है। पांचवे में स्थान, काल मिताहार और नाडी सुद्धि के पश्चात प्राणायाम की विधि बताई गयी है। छठे में ध्यान करने की विधि और उपदेश बताये गए हैं। सातवें में समाधी-योग और उसके प्रकार (ध्यान-योग, नाद-योग, रसानंद-योग, लय-सिद्धि-योग, राजयोग) के भेद बताएं गए हैं। इस प्रकार ३५० श्लोकों वाले इस छोटे से ग्रन्थ में योग के सभी विषयों का वर्णन आया है। इस ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली सरल, सुबोध एवं साधक क लिए अत्यंत उपयोगी है।
घेरण्डसंहिता में वर्णित आसन | |||||
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नाम | छवि | घेरण्डसंहिता श्लोक सं.[2] |
हठयोगप्रदीपिका श्लोक सं.[2][3] |
शिवसंहिता श्लोक सं.[2] | |
सिद्धासन | 2.7 | 1.35-43 | 3.97-101 | ||
पद्मासन | 2.8 | 1.44-49 | 3.102-107 | ||
भद्रासन | 2.9-10 | 1.53-54 | नहीं है | ||
मुक्तासन | 2.11 | नहीं है | नहीं है | ||
वज्रासन | 2.12 | नहीं है | नहीं है | ||
स्वस्तिकासन | 2.13 | 1.19 | 3.113-115 | ||
सिंहासन | 2.14-15 | 1.50-52 | नहीं है | ||
गोमुखासन | 2.16 | 1.20 | नहीं है | ||
वीरासन | 2.17 | नहीं है | 3.21 | ||
धनुरासन | 2.18 | 1.25 (variance) |
नहीं है | ||
शवासन | 2.19 | 1.32 | नहीं है | ||
गुप्तासन | 2.20 | नहीं है | नहीं है | ||
मत्स्यासन | 2.21 | नहीं है | नहीं है | ||
अर्ध मत्स्येन्द्रासन | 2.22-23 | 1.26-27 | नहीं है | ||
गोरक्षासन | 2.24-25 | 1.28-29 | 3.108-112 | ||
पश्चिमोत्तासन | 2.26 | नहीं है | नहीं है | ||
उत्कटासन | 2.27 | नहीं है | नहीं है | ||
संकटासन | 2.28 | नहीं है | नहीं है | ||
मयूरासन | 2.29-30 | 1.30-31 | नहीं है | ||
कुक्कुटासन | 2.31 | 1.23 | नहीं है | ||
कूर्मासन | 2.32 | 1.22 | नहीं है | ||
उत्तान कूर्मासन | 2.33 | 1.24 | नहीं है | ||
मण्डूकासन | 2.34 | नहीं है | नहीं है | ||
उत्तान मण्डूकासन | 2.35 | नहीं है | नहीं है | ||
वृक्षासन | 2.36 | नहीं है | नहीं है | ||
गरुडासन | 2.37 | नहीं है | नहीं है | ||
त्रिशासन | 2.38 | नहीं है | नहीं है | ||
शलभासन | 2.39 | नहीं है | नहीं है | ||
मकरासन | 2.40 | नहीं है | नहीं है | ||
ऊष्ट्रासन | 2.41 | नहीं है | नहीं है | ||
भुजंगासन | 2.42-43 | नहीं है | नहीं है | ||
योगासन | 2.44-45 | नहीं है | नहीं है |
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- घेरण्डसंहिता (संस्कृत विकिस्रोत)
- घेरण्डसंहिता : परिचय एवं हिन्दी अर्थ सहित सम्पूर्ण ग्रन्थ (डॉ० सोमदेव आर्य)
- घेरण्डसंहिता
- घेरण्ड संहिता (अंग्रेजी में अर्थ सहित)
- महर्षि घेरण्ड की योग शिक्षा पर भाष्य - (स्वामी निरंजनानंद सरस्वती)
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ अ आ "घेरण्डसंहिता". मूल से 4 जून 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 6 फ़रवरी 2015.
- ↑ अ आ इ Richard Rosen 2012, पृ॰प॰ 80-81.
- ↑ Gerald James Larson, Ram Shankar Bhattacharya & Karl H. Potter 2008, पृ॰प॰ 491-492.